14. समावर्तन संस्कार

  • हिन्दू धर्म संस्कारों में समावर्तन संस्कार द्वादश संस्कार है। यह संस्कार विद्याध्ययनं पूर्ण हो जाने पर किया जाता है। प्राचीन परम्परा में बारह वर्ष तक आचार्यकुल या गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन परिसमाप्त हो जाने पर आचार्य स्वयं शिष्यों का समावर्तन-संस्कार करते थे। उस समय वे अपने शिष्यों को गृहस्थ-सम्बन्धी श्रुतिसम्मत कुछ आदर्शपूर्ण उपदेश देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए प्रेरित करते थे।
  • जिन विद्याओं का अध्ययन करना पड़ता था, वे चारों वेद हैं -
  • वेदान्त में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिषशास्त्रं।
  • उपवेद में अथर्ववेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, आयुर्वेद आदि।
  • ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथब्राह्मण, ऐतरेयब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण और गोपथब्राह्मण आदि।
  • उपागों में पूर्वमीमांसा, वैशेषिकशास्त्र, न्याय (तर्कशास्त्र), योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र और वेदान्तशास्त्र आदि।
ब्रह्मचर्यव्रत के समापन व विद्यार्थीजीवन के अंत के सूचक के रुप में समावर्तन (उपदेश)-संस्कार किया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु-शिष्य को इंद्रिय निग्रहदान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है -
युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।[1]
अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊंचे पद पर बैठाते हैं।
25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्यपूर्वज गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता थ, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीकस्वरुप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है, किंतु उसका रुप व उद्देश्य बदल गया है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्धारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे। उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक....। अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो।[1] अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

कथा

इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनान उन्नति का मार्ग होगा।[1]

समावर्तन का तात्पर्य है वापिस लौटना। गुरु के पास रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नातक अपने पूज्य गुरु की आज्ञा प्राप्त करके वापिस अपने घर लौटता है। यह समावर्तन संस्कार व्यक्ति का विद्याध्ययन पूर्ण करके वापिस अपने घर लौटने पर संपन्न किया जाता था। इसके पश्चात ही व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो पाता था। दूसरे शब्दों में समावर्तन संस्कार को विवाह आदि करके घर बसाने का फल माना जा सकता है। वर्तमान में तो इस संस्कार को संपन्न करने का विधान प्रायः कम ही होता जा रहा है किंतु पहले इस संस्कार को भी पूरे विधि-विधान के साथ संपन्न किया जाता था। इसमें वेद मंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे आठ कलशों से विशेष विधि से ब्रह्मचारी स्नातक को स्नान करवाया जाता था। इस कारण इसे वेद स्नान संस्कार भी कहा जाता है। आजकल तो समावर्तन संस्कार संपन्न करने की अधिकांश लोगों को विधि-विधान की भी जानकारी नहीं है। आश्वालपन स्मृति के 14वें अध्याय में समावर्तन संस्कार संपन्न करने के पांच प्रामाणिक श्लोक मिलते हैं। इन श्लोकों से स्पष्ट होता है कि समावर्तन संस्कार के पश्चात ही वह ब्रह्मचारी वेद विद्याव्रत स्नातक माना जाता है। प्राचीनकाल में ऐसे ब्रह्मचारी स्नातक को अग्नि स्थापन, परिसमूह तथा पर्युक्षण आदि अग्नि संस्कार कर ऋग्वेद के दसवें मंडल के 128वें सूक्त की समस्त नौ ऋचाओं से समिधा का हवन करना पड़ता था। इसके पश्चात् गुरु दक्षिणा देकर गुरु के चरणों का स्मरण कर उनकी आज्ञा से अग्रांकित मंत्र द्वारा वरुण देव से मौजी मेखला आदि के त्याग की कामना करते हुये प्रार्थना की जाती है। उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे। इश श्लोक का भावार्थ है- हे वरुणदेव, आप हमारे कटि एवं उघ्र्व भाग के मौजी उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा प्रदान करें एवं आगे वाले जीवन में किसी प्रकार की बाधायें नहीं आयें, इसका विधान करें। विद्याध्ययन की संपूर्ण अवधि में व्यक्ति को अपने गुरु के सान्निध्य में रहना होता है। समय-समय पर गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। इसलिए एक व्यक्ति के समक्ष इस समय किसी भी प्रकार की समस्या या तो उत्पन्न नहीं होती और अगर होती है तो गुरु के द्वारा उसका समाधान हो जाता है किंतु इसके पश्चात् व्यक्ति जब गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तो उसे सभी प्रकार की समस्याओं का सामना स्वयं को ही करना पड़ता है और समाधान भी उसी को तलाश करना पड़ता है। इस स्थिति को गुरु भली प्रकार से समझते थे इसलिये ब्रह्मचारी स्नातक को गुरु आश्रम छोड़ने से पूर्व लोक-परलोक हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। यह शिक्षा उसके संपूर्ण जीवनकाल को प्रभावित करती थी। इस शिक्षा को जीवन में उतार कर व्यक्ति अपना संपूर्ण जीवन सफलतापूर्वक व्यतीत कर पाने में सफल होता था। यह शिक्षा मूल रूप से इस प्रकार होती थी- हमेशा सत्य बोलना, माता-पिता, आचार्य एवं अतिथि को देवताओं के समान मानना, संतान के दायित्वों का पूरी तरह से पालन करना, धर्म का पालन करना, श्रम का सम्मान करना, दूसरों के हित में योगदान देना, स्वाध्याय एवं प्रवचनों का सम्मान करना, निंदित कर्मों से बचना, अधर्म से प्राप्त धन का मोह नहीं करना, शुभ आचरणों का पालन करना, श्रद्धापूर्वक दान देना आदि। यह ऐसी शिक्षा अथवा गुरु उपदेश थे, जो उस समय भी अपना पूरा महत्त्व रखते थे और आज भी इनका उतना ही महत्त्व बना हुआ है। अंतर केवल इतना हुआ है कि तब व्यक्ति इन गुरुवचनों को सुनकर इन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता था और आज इनकी उपेक्षा हो रही है।

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