15. विवाह संस्कार

विवाह संस्कार  

विवाह संस्कार
Vivah Sanskar
विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में 'त्रयोदश संस्कार' है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। यह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणों से बंधकर जन्म लेता है- 'देव ऋण', 'ऋषि ऋण' और 'पितृ ऋण'। इनमें से अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है।

प्रमुख संस्कार

हिन्दू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- "विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना"। 'पाणिग्रहण संस्कार' को सामान्य रूप से 'हिन्दू विवाह' के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से अधिक आत्मिक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

उद्देश्य

श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरुप है। हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढते हैं। यानी विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नही, बल्कि पुत्रोत्पादन, संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है।[1]

विवाह प्रणाली

विवाह संस्कार
सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती[2] काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्धारा संपन्न होने वाले विवाहों को 'ब्राह्मविवाह' कहते हैं। इस विवाह कि धार्मिक महत्ता मनु ने इस प्रकार लिखी है -
दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।
ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।।[1]
अर्थात 'ब्राह्मविवाह' से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है- 10 अपने आगे की, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी। भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लडकी को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं।
आश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है की इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों[3] को पवित्र करता है -
तस्यां जातो द्धादशावरन् द्धादश पूर्वान् पुनाति।[1]
भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति[4] के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।
हिन्दू विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक-संस्कार है। संस्कार से अंतःशुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण में तत्त्वज्ञान व भगवतप्रेम उत्पन्न होता है, जो जीवन का चरम एवं परम पुरुषार्थ है। मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण - ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सदधर्म का पालन करने की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।[1]

उद्वाह

  • विवाह का शाब्दिक अर्थ है 'उठाकर ले जाना', क्योंकि विवाह के अंतर्गत कन्या को उसके पिता के घर से पति के घर ले जाया जाता है, इसलिए इस क्रिया को 'उद्वाह' कहा जाता है।
  • एक स्त्री को पत्नी बनाकर स्वीकार करने को 'उद्वाह' कहते हैं।



सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार का विशेष स्थान है। एक प्रकार से विवाह संस्कार के द्वारा ही स्त्री तथा पुरुष मिल कर पूर्णता को प्राप्त करते हैं। विवाह के बिना व्यक्ति का जीवन अधूरा एवं व्यर्थ माना गया है। विवाह संस्कार द्वारा व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करता है, संतान के जन्म से उसका वंश आगे को बढ़ता है। विवाह के पश्चात् ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। मानव जीवन के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम को विशेष महत्व प्राप्त है। गृहस्थ जीवन में व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ मिलकर अनेक पारिवारिक एवं सामाजिक उदरदायित्वों को पूर्ण करता है। विवाह के द्वारा ही उसके जीवन में एक ऐसी स्त्री का आगमन होता है जो जीवनपर्यन्त उसके साथ मिलकर जीवन के संघर्षों को जीतने में उसका साथ देती है। ऐसा माना जाता है कि पुरुष के जीवन से अगर स्त्री को अलग कर दिया जाये तो इस सृष्टि का आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा, पुरूष के जीवन से आनंद समाप्त होकर नीरसता का समावेश होने लगेगा और अंततः जीवन का मूल्य ही समाप्त हो जायेगा। विवाह के द्वारा ही पुरुष को स्त्री का सान्निध्य प्राप्त होता है, इसलिये विवाह संस्कार को विशेष स्थान प्राप्त है। विवाह संस्कार को सबसे अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है, इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। कुछ व्यक्ति एवं अल्पज्ञानी विद्वान विवाह संस्कार को विवाह संपन्न होने तक के विधि-विधानों तक सीमित करके देखते हैं। वर-वधू का विवाह संपन्न हो गया, इसी के साथ विवाह संस्कार भी पूर्ण हो गया ... किंतु वास्तव में ऐसा नहीं हे। विवाह के साथ ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही उसे अनेक प्रकार के पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को पूरा करना पड़ता है। वर्तमान में व्यक्ति मृत्युपर्यन्त गृहस्थ जीवन में ही लिप्त रहता है। इस कारण विवाह संस्कार को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विवाह संस्कार से अंतिम संस्कार अर्थात् अन्त्येष्टि संस्कार के बीच कोई अन्य संस्कार भी नहीं है। इसलिये भी इसका बहुत अधिक महत्त्व माना गया है। 1. विवाह के माध्यम से पिता अपनी कन्या के भविष्य की चिंता से मुक्त हो जाता है क्योंकि विवाह के बाद उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उसकी सुरक्षा करने का उत्तरदायित्व उसके पति का हो जाता है। 2. विवाह के माध्यम से ही व्यक्ति अपने पुत्र के लिये कन्या को स्वीकार करता है। इससे जहां परिवार के कार्यों में उसका सहयोग प्राप्त होता है, वहीं उसके द्वारा संतान को जन्म देने से उसका वंश भी आगे बढ़ता है। 3. विवाह के द्वारा दो नितांत अपरिचित स्त्री-पुरुष एक होकर जीवन भर साथ रह कर अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री को अधूरा समझा जाता है। पुरुष के जीवन में जब स्त्री का पत्नी के रूप में आगमन होता है तभी वह पूर्णता को प्राप्त करता है। इसी कारण से पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है। स्वयं देवों के देव भगवान शिव के शरीर का आधा भाग शक्ति रूपिणी गौरी का माना गया है, इसलिये वे अर्धनारीश्वर कहलाये। 4. विवाह के द्वारा दो परिवारों के बीच नये संबंधों का सूत्रपात होता है। एक प्रकार से उनकी प्रतिष्ठा, सम्मान और मान में वृद्धि होती है। दो कुटुंब एक होकर नई शक्ति बन जाते हैं।

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